The Poetry “चहेता मुसाफ़िर” is a free style poem dedicated to life of everyone from the heart of the poetry writer Sapna Jain. You can relate it with you in your own perception.
एक दिन ज़िंदगी के एक चहेते मुसाफ़िर ने ज़िंदगी से पूछा
ताश के पन्ने सी बिखर जाएगी
ऐ ज़िंदगी तू कब निकल जाएगी
तेरे लिए मैं जीता आया अब तक
पर लोग कहते हैं कि तू तो बेवफ़ा है
क्या वाक़ई ऐसा है ?
तू ही बता ना
दुनिया पर मुझको कोई यक़ीं नहीं है
बस तू एक बार बोल दे अपने इरादे
तू मेरी है या पराई
एक बार तो मुँह खोल दे
तेरे लिए ही जीता आया हूँ अब तक
एक बार तो कुछ बोल दे
ज़िंदगी मुस्कुरायी
फिर खिलखिलायी
और फिर बोली
ऐ मुसाफ़िर, तेरा नाता मुझसे
तब तक ही है जब तक तू यहाँ है
मेरे साथ
मुझे जीना है तो जी ले
क्योंकि मुझमें उलझा तो सुलझ ना पाएगा
मुझमें रमा तो तर ना पाएगा
तेरे जैसे बहुत मुसाफ़िर आए और गये
जो जीकर चला गया
मैं उसकी रही
जो मुझे जकड़ने में पड़ा
मैं बेवफ़ा हो गयी
क्या फ़र्क़ पड़ता है मैं तेरी हूँ या परायी
फ़र्क़ तो मुझे पड़ता है
क्योंकि मैं किसी की ना होकर भी सभी की हूँ
और सभी की होकर भी
किसी की नहीं हूँ
क्योंकि मैं ज़िंदगी हूँ
हाँ मैं ऐसी ही हूँ
• सपना जैन
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