शरद पूर्णिमा का चाँद ठंडक आने की दस्तक देता है और मानसून को अलविदा कहता है । वैसे तो इसे भारत में अलग-अलग तरीक़े से मनाने की परम्परा है जिसका वर्णन यहाँ करना मेरे इस लेख का अभिप्राय नहीं है ।
शरद पूर्णिमा के बारे में सोचकर मुझे अपना बचपन याद आया और मैं लिखने बैठ गयी ।
आज की रात होती थी सुई में धागा पिरोने की रात । चाँद निकलते ही मैं और भैया मम्मी-डैडी के साथ छत पर पहुँच जाते थे और चाँद की रोशनी में सुई में धागा डालने की जद्दोजेहद शुरू होती थी । ऐसा मानना था कि जिसने चाँद की रोशनी में सुई के बारीक छेद में धागा पिरो दिया, मतलब उसकी आँखें एकदम सही हैं और उसे चश्मा नहीं लगाना पड़ेगा । मैं तो इसी डर में धागा पिरोती थी कि अगर मैं ऐसा ना कर पायी तो कहीं चश्मा ना लग जाए । मुझे याद है कि मम्मी बड़े छेद वाली बड़ी सुई भी अपने साथ रखती थी कि कहीं ऐसा ना हो कि मैं छोटी हूँ और छोटे छेद वाली सुई में धागा नहीं डाल पायी तो मुझे समझा सकें और मैं रोऊँ ना ।
आज की रात चाँद को कुछ देर खुली और बड़ी आँखें फैलाकर देखना होता था । इसके अलावा एक और चीज़ होती थी जो मुझे बहुत पसंद थी । मम्मी देसी घी में चीनी और काली मिर्च मिलाकर छत पर चाँद के नीचे पूरी रात रखती थी और ऊपर से एक मलमल का कपड़ा ढाँक दिया करती थी जिससे उसमें कीड़े-मकौड़े ना पड़ें और दूसरे दिन सुबह उठकर बासी मुँह उसे खाना होता था । ऐसा मानना था कि आज की रात चाँद से अमृत झरता है ।
ये लिखने के साथ ही मैं उठकर बालकनी की ओर गयी कि देखूँ तो शरद पूर्णिमा का चाँद कैसा दिख रहा है, लेकिन ऊँची-ऊँची बिल्डिंग ने चाँद को पता नहीं कहाँ छुपा रखा है । शायद बचपन वाला चाँद जोकि छत पर चढ़ते ही दिख जाता था, उसे देखने के लिए मुझे चाँद के साथ लुका-छिपी का खेल करना पड़ेगा और इंतज़ार करना पड़ेगा कि शायद चाँद अभी किसी बिल्डिंग की ओट से झांकेगा और अपने अमृत की धार मुझ पर बरसाएगा जिसे मैं अपनी आँखें फैलाकर गृहण करूँगी ।
सुई और धागा लिए मैं यहीं खड़ी हूँ ।
Written by
Sapna Jain
31st October 2020
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